साथियो, बहुत दिनों बाद अधिकार, हिस्सेदारी और सम्मान बचाने का आख़िरी मौक़ा आया है । शायद 2029 के बाद लड़ने का मतलब नहीं रह जाएगा। हमें दो स्तर पर लड़ना है। पहला, अपने जो सही रास्ता न दिखाकर ख़ुद के नेतृत्व, धन, आभा और शक्ति के लिए दुश्मन को दिखाते रहते हैं । इसे भावनात्मक शोषण कहते हैं। केवल विचार और ज्ञान बांटने से न पेट भरेगा और न पढ़-लिख सकते हैं और न ही जरूरी संसाधन उपलब्ध हो सकते हैं जिससे लड़ा
जा सके। इनका काम केवल सवर्णों को गाली देना, तीखी भाषा और असत्य बातों के माध्यम से समाज के लोगों को गुमराह करके इकट्ठा करना है। सत्ता प्राप्ति का सपना बेचते रहें और नौकरी, शिक्षा और जमीन आदि के सवाल को टालते रहें। निजीकरण, वजीफा, उत्पीड़न जैसे प्रश्न से भी ध्यान हटाते रहें। मान लेते हैं कि सारे 16% दलित एक साथ हो जायें तो भी क्या 84% जनता के मुक़ाबले सत्ता प्राप्त कर सकते हैं ? 16% दलित सैकड़ों जातियों में विभाजित हैं। आदिवासी समाज का एक हिस्सा ईसाईयत तक सीमित है। एक बड़ा हिस्सा जागरूक ही नहीं है और ऐसे में कितना समर्थन इस वर्ग से मिल सकता है, समझना मुश्किल नहीं है। पिछड़ा वर्ग अब जाग्रत हो रहा है लेकिन अभी भी एक बड़ा हिस्सा मनुवादियों के चंगुल में फंसा है। सामाजिक न्याय के प्रति एक छोटा हिस्सा ही तैयार है। इन परिस्थितियों में क्या कोई दलित या पिछड़ा आधारित नेता या पार्टी सत्ता पर कब्जा करके मनुवादियों को हटा सकता है? क्या 272 लोक सभा सीटें जीत सकते हैं या मुख्य विपक्षी दल हो सकते हैं। क्या कोई एक सांसद कुछ भी कर सकता।कितना भी चिल्ला लें सत्ताधारी दल के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही है। मैं नहीं कह रहा हूँ कि सत्ता के लिए लड़ना नहीं चाहिए। सत्ता प्राप्ति का मार्ग संवैधानिक अधिकारों की लड़ाई से गुजरता है। मुद्दों की लड़ाई लड़ना होगा। मांगे रखनी होगी। हिस्सेदारी की लड़ाई लड़ते हुए आगे बढ़ना है।दलित, ओबीसी, माइनॉरिटीज और आदिवासी इन दोनों व्यर्थ, बातूनी और भावुक बातों से हटकर संविधान और आरक्षण बचाने के लिए कटिबद्ध हैं। सही जाति जनगणना हो। आरक्षण की सीमा 50% से हटाई जाए और ईवीएम हटाकर बैलट पेपर से चुनाव हों।
मुस्लिम समाज से कहना चाहूँगा कि बहुसंख्यकवाद के कारण राजनीतिक दलों के भरोसे न रहे ।सेक्युलर नेता और दल भी बहुसंख्यकवाद से डरे हैं कि यदि मुस्लिम और ईसाई के अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता की बात करेंगे तो चुनाव हार जाएँगे। अगर विपक्ष पूरी ताक़त से लड़े भी तो भी सत्ताधारी दल को हटाना मुश्किल है। ऐसे में दलित, ओबीसी, माइनॉरिटीज और आदिवासी परिसंघ (डोमा परिसंघ) को सामाजिक स्तर एक होकर लड़ना होगा । मंडल कमीशन या जाति जनगणना का विरोध क्या कभी मुसलमानों ने किया? क्या दलितों के ऊपर उत्पीड़न या छुआछूत मुस्लिम करते हैं, नहीं। तब क्यों नहीं सब साथ होकर मनुवादियों को उखाड़ फेंकते? याद रखें अकेले-अकेले कोई नहीं लड़ सकता है। 15 जून 2025 (रविवार) को एनडीएमसी ऑडिटोरियम, जंतर मंतर के पास, नई दिल्ली में सुबह 10 बजे इन्ही सवालों पर देश के कोने-कोने से अंबेडकरवादी, बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता एकत्रित होंगे। आप भी आएं और दूसरों को भी सूचित करें।
कितने साथियों के साथ भाग लेंगे नीचे दिए गए संपर्क नंबर पर पहले सूचित कर दें तो अच्छा रहेगा। जय भीम !जय संविधान !
डॉ उदित राज (पूर्व सांसद)
राष्ट्रीय चेयरमैन, दलित, ओबीसी, मॉइनॉरिटीज़ एवं आदिवासी (डोमा) परिसंघ